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पंतनगर का इंजीनियर

पढ़ना लिखना भूल गया, आकर इन गलियारों में, राह नहीं है याद उसको, मंजिल है उसकी क्या, ये हैं इंजीनियर, पंतनगर के गलियारों का। देख के सुंदर फूल यहां के, बन बैठा भवरां ये, रोज निहारता कई फूलों को, इस जंगली बगिया में। है कांटो की भरमार यहां पर, है मंज़िल खतरनाक यहां पर, देखा भवरें ने जब ये सब, हुआ एहसास गलती का तब, जीना सीख गया भवरां, इस मायावी बगिया में, कांटो से बचना, मंडराना फूलों पर, काम यही है अब उस भवरें का, ये है इंजीनियर, पंतनगर के गलियारों का।

स्वयं

कौन कहता है वो जो हर कोई सुनता है, कौन जीता है ऐसे कि हर कोई मरता है, कौन खुद के अंधेरों में जीता है, कौन रो रो कर गुजारा करता है। कथा ये जीवन की बड़ी अटपटी, हर कोई इसमें सिमटने की कोशिश करता है, कभी हसता है कभी रोता है, फिर भी इसके आगोश में सोने की इच्छा करता है। मनुष्य महान है जो तू बेवजह संघर्ष करता है, तृप्ति में भी प्यासा रह जाता है, आखिर तेरी मंजिल क्या है? जिसे तू हर कदम ढूंढता है। कभी खुद को भी जानने की कोशिश कर, संघर्ष तो कर परन्तु उद्देश्य पूर्ण कर, खुद के अस्तित्व की पहचान कर, मत भटक इधर उधर, तुझमें ही तेरा विराम है...!

यात्रा... स्वयं की - १

"चाचा जी ये रहा आपका कम्बल और आते समय मेरे लिए कुछ लेकर आना ।" ये कहकर वह बालक चाचा जी के चरण स्पर्श करता है। चाचा जी उसे उठा कर गोद में बिठा लेते है, पूछते है कि " बता क्या लाऊ तेरे लिए मेले से।" बालक उत्सुकता से बोला, " मुझे एक रथ चाहिए जिसमें चार घोड़े हो", इसपर चाचा जी मुस्कुराए, " अच्छा ठीक है," चाचा जी खड़े हो जाते हैं अपना मोटा कम्बल कंधे पर रखते है और एक कपड़े का बना थैला बगल में टांग लेते है और उस बालक के सर पर प्रेम से हाथ रखते है मानो वो खुद को देख रहे हो। चाचा जी लक्सर रेलवे स्टेशन से प्रयागराज के लिए जाने वाली रेलगाड़ी में बैठते है। रेलगाड़ी कुंभ में जाने वाले यात्रियों से भरी हुई थी। चाचा जी भी नीचे जगह बना कर बैठ गए और कम्बल लपेट लिया। ठंड बहुत ज्यादा थी फिर भी लोग पूर्णिमा के स्नान के लिए लाखो की संख्या में कुंभ की ओर बढ़ रहे थे। अभी चाचा जी को निद्रा और भीड़ के कारण कम परेशानी हो रही थी कि दो व्यक्ति पता नहीं कहा से स्त्री समानता के ऊपर वाद विवाद करने लगे। दोनों व्यक्ति इस बात का निर्धारण ही नहीं कर पा रहे थे कि इस समानता में कि...

चाह

राहत भी आहत लगती है जब जिंदगी ठहर जाती है। मुश्किलों में चमन को देखे , जब जुबां पिघल जाती है। कांटो का सौदा करे, पुष्प की चाह में, ये रिवायत हो कैसे पूरी, जब जमीं बंजर हो जाती है। मरघट भी सुखने लगे, अपने अस्तित्व को बचाने लगे, यहां तो नदियों भी सुखी रेत बची है, तो उनकी उम्मीद भी खो सी जाती है।

मन

अब मै ऊब चुका हूं इन व्यर्थ की संकाओ से क्यों हर वक्त सोचता था अब बस यही सोचता हूं पर सोचना तो छूटा नहीं शायद यही मुसीबत है, जो छूटती ही नहीं, तभी तो हर वक्त मुसीबत सामने नजर आती है क्या करू मै अब कुछ समझ नहीं आता बस इस धारा में बह जाने को मन चाहता कभी लगता है कितना कमजोर है ये मन मेरा इसको समझता हूं बार बार ये अंत नहीं है तेरे सामर्थ्य का तुझे जरूरत है बस खुद को पहचान ने की नहीं मानता ये बस भटकने के नशे में खुद को रखना चाहता है ना जाने क्यों ये इसको इतना पसंद करता है कोई इसे समझाओ अभी तो सफ़र लम्बा है तू क्यों थकान महसूस करता है तेरी अभी उम्र ही क्या है तूने खुद को आईने में देखा कभी यदि देखता गौर से तो तुझे तेरी खूबसुरती दिखाई देती

अपन्त्व

किया अर्पित अपना सर्वोत्तम, दिया समय उसके सृजन में, विष भरा था जिसके दंत में, तब भी पालन किया सोचकर, विष बदलेगा उसका औषधी में, किन्तु निकला वो कष्ट जीवन का, डसता रहा, पीड़ा देता रहा, फिर भी स्नेह किया, क्षमा किया, क्योंकि वो है तो रक्त अपना। चला गया वो अकेला छोड़ के, स्वयं को बलवान बनाने को, पीड़ा तब भी रह गई, वर्षों का मोह जो था उससे। एक दिन लौटकर आया, होकर सम्मुख वो बोल ना पाया, थे वचन अधूरे, पीड़ा के मारे, नेत्रों से अश्रु छूट रहे है गुरु के, कैसी विडम्बना थी ये पुत्र की, पिता के स्थान मिला गुरु से, द्रवित हृदय से कंठ खुला, आज गुरु नहीं, पिता से मिलने आया है, ये विषेला पुत्र उनकी शीतल छाव में, कुछ क्षण बिताने आया है।

जीवन

दर्प तुम्हे इस दामन का, फिरे यौवन उपहार लिए। वस्त्र ओढ़ा मृदुलता का , कटुता की भरमार लिए। लोभ,मोह और तृष्णा का, जीवन में रसधार लिए। काम, क्रोध और मिथ्या का, अपना एक संसार लिए। वाचलता के प्रभुत्व वादी, फिरे सत्य से तकरार लिए। जब शून्य में विलीन होना, तब घूमे अनंत की चाह लिए। रे षठ! तर पाया कोई भवसागर को, नौका और पतवार लिए।