अपन्त्व

किया अर्पित अपना सर्वोत्तम,
दिया समय उसके सृजन में,
विष भरा था जिसके दंत में,
तब भी पालन किया सोचकर,
विष बदलेगा उसका औषधी में,

किन्तु निकला वो कष्ट जीवन का,
डसता रहा, पीड़ा देता रहा,
फिर भी स्नेह किया, क्षमा किया,
क्योंकि वो है तो रक्त अपना।

चला गया वो अकेला छोड़ के,
स्वयं को बलवान बनाने को,
पीड़ा तब भी रह गई,
वर्षों का मोह जो था उससे।

एक दिन लौटकर आया,
होकर सम्मुख वो बोल ना पाया,
थे वचन अधूरे, पीड़ा के मारे,
नेत्रों से अश्रु छूट रहे है गुरु के,

कैसी विडम्बना थी ये पुत्र की,
पिता के स्थान मिला गुरु से,
द्रवित हृदय से कंठ खुला,
आज गुरु नहीं,
पिता से मिलने आया है,
ये विषेला पुत्र उनकी शीतल छाव में,
कुछ क्षण बिताने आया है।

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