जीवन

दर्प तुम्हे इस दामन का,
फिरे यौवन उपहार लिए।
वस्त्र ओढ़ा मृदुलता का ,
कटुता की भरमार लिए।
लोभ,मोह और तृष्णा का,
जीवन में रसधार लिए।
काम, क्रोध और मिथ्या का,
अपना एक संसार लिए।
वाचलता के प्रभुत्व वादी,
फिरे सत्य से तकरार लिए।
जब शून्य में विलीन होना,
तब घूमे अनंत की चाह लिए।
रे षठ! तर पाया कोई भवसागर को,
नौका और पतवार लिए।

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