मन का संघर्ष

दुखी है मन, जाने ना,
घायल है अंजान के बाणों का,
कराह रहा है अंधेरे में,
रोशनी उसको कोई दिखाए ना।

सिसक रहा सोच कर,
कोई सुन ना ले आहट,
पीड़ा ना बना दे पात्र उपहास का,
क्या यही है कारण उसकी उदासीनता का।

परन्तु साहसी है वह घायल,
जो देता है स्वयं, मन को दिलासा,
और ईश्वर से कहता है,
तेरी इस नियति को भी स्वीकारा हैं।

वो प्रयास करता बार बार,
हो जाय उजाला कहीं इस अंधेरे में,
परन्तु बुझा दिए दीपक उम्मीदों के,
नियति ने फूंक से।

अपनाया परिश्रम को, नियति को त्याग दिया,
बोझ उठा कर सभी दुखो का,
उसने अंधेरे को त्याग दिया,
संघर्ष मान कर भाग्य का,
मोक्ष पाने चल दिया।

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