मेरा बोझ

 उजड़ती ज़िन्दगी, बिखरती तमन्नाएं।

समेटू कहां।

ये प्रश्न ही है जिसका बोझ उतारने को, 

भटकता हूं यहां वहां।

वो स्थल है कहां जहां मै विश्राम करू

कर्महीन होकर भी कर्महीन ना कहलाऊं,

ऐसा जीवन हैं कहा।

अभी तो युवान हूं,

तब भी कदम डगमगा जाते,

सहारा लेने जाऊ कहां।


सोचता हूं,

हवाओ में बहता जाऊ,

बिन पंख उड़ जाऊ,

दूर गगन से देख इस धरा को,

मैं भी मुस्कुराऊ।

पर बंधन है की छोड़ता ही नहीं,

पूछता है तू जाता कहां,

छोड़ मुझे खुद उड़ना चाहता हैं।

जड़ हो जा यही,

जैसे वट वृक्ष कोई,

तानो को अपने कठोर कर,

लताओं को विस्तार दे,

फिर बोझ लगेगा कहां,

ये तो कर्तव्य हैं तेरा,

इसका निर्वाह ही धर्म तेरा।


आदेश हैं या विनती,

उसकी सुनूं या अपनी,

मैं हो भी जाऊ ऐसा,

परंतु कठोरता मेरा व्यवहार नहीं,

विस्तार की आस नहीं,

खुद मैं ही सिमटने की आतुरता है,

बस एक बार,

सब कुछ छोड़ उड़ जाने की हैं।

Comments

Popular posts from this blog

समय

रेलवे स्टेशन

ठंडी रात